कुछ कहना चाहता हूं

पर शब्‍द नहीं मिलते

होंठ कंपकपांते हैं मगर

कुछ नहीं कहते

तुमसे गिले शिकवे करुं

तो करुं कैसे

मेरे गिले शिकवों को

मुकम्‍मल अर्थ नहीं मिलते

अगर कहता भी मैं भला

तो तुमसे क्‍या कहता

क्‍योंकि मेरे शब्‍द आडे टेढे हैं

मेरी भाषा ही मौन है

तो तुम भला समझती कैसे

मैने तो इन बेमतलब बातों से

खुद को समझा रखा है

पर सोचता हूं कि तुम

कभी न कभी

जब पूछोगी अपने आप से

तो कैसे कह पाओगी

कि मैने खुद को खुद से छिपाकर रखा है।