यह शहर जाना पहचाना है इसकी गलियां जानी पहचानी हैं पर जब भी मैं इनसे गुजरता हूं अक्सर गलत मोड मुड जाता हूं । लोग मिलते हैं पर पहचानते नहीं पूछने पर कहते हैं हम आपको जानते नहीं । न जाने कैसे मतलब होने पर
उन्हें याद हो ही जाता है कि हम उनके बहुत करीब हैं । अब मैं भी इसी शहर का बाशिंदा हूं मैं भी इसी भीड में शामिल हूं ऐसी चाल को टेढी न कहना इसको जमाने का दस्तूर कहते हैं दोस्तों इस शहर को मतलबपरस्त न कहना वर्ना मैं बुरा मान जाऊगां दोस्तों !
जब हो हर तरफ तन्हाई
रात हो घिर आई
धीरे से तुम सिसकना मत
चाँद से कुछ बातें करना
मुस्कराना
इठलाना
गुदगुदाना
और फिर प्यार से
ग़मों को अपने भूल जाना
देखोगे कि सुबह फैली हुई है
अपनी सौगात लेकर
रात की कालिमा को धोकर
जीवन निराशा की नहीं सुख की भाषा है
इस से भागना नहीं
अपने आगोश में पकड़ लेना
प्यार बांटना गम नहीं
मुस्कुराते रहना
सिसकना रोना नहीं.
(‘पतझड सावन वंसत बहार’ संकलन में प्रकाशित कविता)